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Pea Cultivation

अरहर दाल की खेती कैसे करे

अरहर दाल की खेती कैसे करे

अरहर की दाल घर से लेकर होटल, ढ़ाबों तक हर जगह पसंदी की जाती है। इसकी खपत भी खूब होती है। अच्छे और गुणवत्ता युक्त उत्पादन के लिए अरहर की उन्नत खेती के तौर तरीके जानाना आवश्यक है। 

कुछ किसान हाइब्रिड अरहर की खेती भी कर रहे हैं। यूं तो किसान इसकी खेती करते आ रहे हैं, लेकिन अब कम समय में पकने वाली और अरहर के बाद दूसरी फसलें ले सकने की समय सीमा वाली किस्में भी आ गई हैं। इनकी जानकारी होना किसानों के लिए आवश्यक है। 

अरहर की खेती कब की जाती है

अगर हम बात करें अरहर कब बोई जाती है तो अरहर की कम समय में पकने वाली किस्मों के विकसित होने से अरहर के बाद रबी सीजन की कई फसलें लेना आसान हुआ है। 

इससे किसनों की माली हालत सुधारने की दिशा में सुधार हुआ है। अरहर की खेती के बाद किसान बाजरा, ज्वार, मक्का, तिल, सोयाबीन, उडद, मूंग आदि की फसल ले सकते हैं। 

इसके अलावा अरहर की खेती के बाद फसल चक्र की बात करें तो अरहर के बाद गेहूं, अरहर—गेहूं—मूंग, अरहर—गन्ना, ग्रीष्म मूंग— अरहर एवं गेहूं, अति अगेती अरहर—आलू एवं उडद के अलावा अरहर—उडद—मसूर या तारामीरा जैसी फसलों का चक्र बनाकर साल भर पैसे का चक्र बनाया जा सकता है। 

दालों में अरहर की दाल सबको भाती है और इसकी कीमत भी ठीक ठाक मिलती है। इसकी बिजाई जून—जुलाई में की जाती है।

अरहर की खेती के लिए भूमि का चुनाव

अरहर का पौधा विभिन्न प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है। अरहर की खेती के लिए हल्की रेतीली दोमट या मध्यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में स्फुर तथा जिसका पी.एच. मान 7-8 के बीच में हो व समुचित जल निकासी वाली हो इसके लिये सर्वोत्तम होती है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार

उन्नत किस्मों का बीज 18-20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बुआई करें। मृदा जनित रोगों से बचाव के लिए बीज को फफूंदनाशक दवा थाइरम या कार्बेन्डाजिम को 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर उपचारित करें। 

तत्पश्चात, बीज को राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें। 50 ग्राम गुड़ या चीनी को 1-2 लीटर पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें 200 ग्रा. राइजोबियम कल्चर मिला दें। 

इस कल्चर में 10 किलोग्राम बीज डाल कर अच्छे से मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जाये। बीज को कल्चर से उपचरित करने के बाद छाया में सुखाकर शीघ्र बुवाई करें। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें।

अरहर की उच्च उपज किस्म

अगर आपके मन में प्रश्न है, कि अरहर की दाल कैसी होती है, तो आपको बतादें कि अरहर की दाल अत्यंत फायदेमंद होती है। भारत वर्ष के उत्तरी क्षेत्रों के लिए विभिन्न किस्में विकसित हो चुकी हैं। 

क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूप प्रजाति का चयन करना चाहिए। इन सभी किस्मों की औसत उजप 20 से 25 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक मिलती है। 

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उत्तर पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर पंजाब के लिए पीपीएच—4 किस्म की हाइब्रिड प्रजाति अच्छी हे। उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा राज्य के लिए पूसा 992 एसडी सभी क्षेत्रों के लिए, पंजाब और उत्तरी राजस्थान हेतु पूसा 99 संपूर्ण क्षेत्र, पूसा 2001 एवं 2002 संपूर्ण क्षेत्र, आजाद एलडी—यूपी—बिहार, विरसा एमडी किम बिहार के पहाड़ी इलाके, डब्ल्यूआर किस्म यूपी बिहार, पूसा—9 संपूूर्ण क्षेत्र, नरेन्द्र अरहर  पूर्वी उत्तर प्रदेश, श्वेता—पश्चिम बंगाल, जागृृति संपूर्ण क्षेत्र, आईसीपीएल—मैदानी भाग, आईसीपीएच हाइब्रिड संपूूर्ण क्षेत्र में बुवाई हेतु उपयुक्त हैं। कई किस्में रोग रोधी भी हैं। अगेती किस्मों में जून में बोने को पारस, यूपीएस 120, पूसा 992 एवं टी—21 जुलाई में बोने के लिए बहार, अमर, नरेन्द्र, आजाद, पूसा 9, मालवीय विकास, मालवीय चमत्कार, नरेन्द्र अरहर 2 जैसी अनेक किस्में हैं। नई अगेती प्रजाति में प्रजाति पंत अरहर-421 को पश्चिमी यूपी, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के मैदानी हिस्से में उगाया जाएगा। 

अरहर की बुआई का समय एवं विधि

शीघ्र पकने वाली किस्मों की बुआई सिंचित क्षेत्रों में जून के प्रथम पखवाड़े तथा मध्यम देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के द्वितीय पखवाड़े में करें। बुआई सीडड्रिल या हल के पीछे चोंगा बांधकर पंक्तियों में करें। 

ऐसे खेत जिनमे जल भराव की समस्या हो उनमे बुवाई के लिए कूड़ एवं पंक्ति विधि उपयुक्त होती है। शीघ्र पकने वाली जातियों के लिये पंक्तियों के बीच की दूरी 30-45 सेण्टीमीटर तथा पौधे से पौधे के बीच की दूरी 10-15 सेण्टीमीटर, मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिये 60-75 सेण्टीमीटर कतार से कतार तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सेण्टीमीटर रखते हैं। 

अरहर के लिए उर्वरक

अरहर की फसल को रोगों से बचाव के लिए एवं पैदावार बढ़ाने के लिए खाद और उर्वरक का प्रयोग हमेशा मिट्टी की जांच के बाद ही करें। 

मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अंतिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीजों से 2 सेण्टीमीटर की गहराई व 5 सेण्टीमीटर साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। 

प्रति हेक्टर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 केजी फास्फोरस, 20 केजी पोटाश व 20 केजी गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहां पर 25 केजी जिंक सल्फेट प्रयोग करें। 

नाइट्रोजन एवं फस्फोरस की कमी समस्त भूमियों में होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा परिक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। 

नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 केजी डाई अमोनियम फास्फेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 केजी जिप्सम प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।

सिंचाई एवं जल निकास

जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहां पर बारिश न होने पर एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियां बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढ़ोतरी होती है। 

अधिक अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जल निकास का होना प्रथम शर्त है अत: निचले एवं अधो जल निकास की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ों पर बुवाई करना उत्तम रहता है। 

अरहर में खरपतवार नियंत्रण

प्रथम 60 दिनों में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अत्यन्त नुकसानदायक होती है। इसकी खुरपी से दो बार निराई करें। प्रथम बुवाई के 25-30 दिन बाद एवं द्वितीय 45-60 दिन बाद खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ मृदा वायु-संचार होता है। 

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पेन्डीमिथालिन 1.25 कि.ग्रा. सकिय तत्व/हे. की दर से बुवाई के बाद 3 दिनों के अंदर प्रयोग करने से खरपतवार खेत में नहीं उगता है। 

भण्डारण

भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 10-11 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करें।

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती सदैव कृषकों के लिए फायदे का सौदा साबित हुई है। हालांकि, बाजार के उतार-चढ़ाव में अरहर का भाव कम-अधिक होता रहता है। 

परंतु, अरहर की खेती करने वाले कृषकों के समक्ष एक चुनौती यह आती है, कि यह फसल काफी लंबे समय में पककर तैयार होती है। किसान दूसरी फसलों की बुवाई नहीं कर पाता है। 

परंतु, वैज्ञानिकों ने अरहर की कुछ ऐसी भी किस्में तैयार की हैं, जो न सिर्फ कम समय में पककर तैयार होती हैं। साथ ही, उपज भी काफी अच्छी देती हैं। 

इसके अतिरिक्त किसानों को अरहर की खेती में कुछ विशेष सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। बतादें, कि कृषकों को अरहर की रोपाई से पहले उसका बीजोपचार करना पड़ता है। 

साथ ही, अरहर की बुवाई जून के माह में की जाती है। चलिए जानते हैं, कम समयावधि में तैयार होने वाली किस्मों की खूबियां व बीचोपचार के बारे में।

किसान भाई इन तीन किस्मों का उत्पादन कर अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ?

अरहर की पूसा 992 किस्म

भूरे रंग, मोटा, गोल और चमकदार दाने वाली इस किस्म को वर्ष 2005 में विकसित किया गया था। ये किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले कम दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसको पकने में तकरीबन 140 से 145 दिन का समय लगता है।

दरअसल, यह किस्म प्रति एकड़ भूमि द्वारा 7 क्विंटल उत्पादन प्रदान कर सकती है। जानकारी के लिए बतादें, कि इस किस्म की खेती सर्वाधिक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान राज्य में की जाती है। 

अरहर की पूसा 16 किस्म 

पूसा 16 जल्दी तैयार होने वाली बेहतरीन प्रजाति है। अरहर की इस किस्म की समयावधि 120 दिन की होती है। इस फसल में छोटे आकार का पौधा 95 सेमी से 120 सेमी लंबा होता है, इस किस्म का औसत उत्पादन 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। 

अरहर की आईपीए 203 किस्म  

अरहर की आईपीए 203 किस्म की विशेषता यह है, कि इस किस्म में बीमारियों का आक्रमण नहीं होता है। साथ ही, इस किस्म की बुवाई करके फसल को बहुत सारे रोगों से संरक्षित किया जा सकता है। 

साथ ही, इससे बेहतरीन उपज भी हांसिल कर सकते हैं। इसकी औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की होती है।

इस किस्म की समयावधि 150 दिन की होती है। साथ ही, अन्य किस्मों को तैयार होने में लगभग 220 से 240 दिन लगते हैं।

कृषक इस प्रकार बीज उपचार करें 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल की खेती से पहले बीज उपचार अत्यंत आवश्यक है। बीज उपचार करने से रोगिक प्रभाव काफी कम पड़ते हैं। 

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इसके लिए कार्बेंडाजिम नामक दवा को दो ग्राम प्रति किलो की दर से मिला लें। इसमें पानी मिलाकर बीज को किसी छाया वाली जगह पर चार घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसकी बुवाई करें। ऐसा करने से बीज पर किसी प्रकार का रोग आक्रामण नहीं करता है। 

कृषक इस विधि से करें अरहर की खेती 

सामान्यतः किसान अरहर की खेती छींटा विधि के माध्यम से करते हैं, जिससे कहीं अधिक तो कहीं कम बीज जाते हैं। इससे कहीं घनी तो कहीं खाली फसल तैयार होती है। 

इससे फसलीय उपज में काफी कमी आती है, क्योंकि घना हो जाने से पौधों को समुचित धूप, पानी और खाद नहीं मिल पाता है। इसके लिए किसान को 20 सेंटीमीटर के फासले पर बीज लगाने चाहिए। इससे बीज दर भी काफी कम लगती है।

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।
गर्मियों के मौसम में करें लोबिया की खेती, जल्द हो जाएंगे मालामाल

गर्मियों के मौसम में करें लोबिया की खेती, जल्द हो जाएंगे मालामाल

लोबिया एक महत्वपूर्ण फसल है, जिसे बोड़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह एक दलहनी पौधा है जिसकी खेती मैदानी इलाकों में मार्च से अक्टूबर के मध्य की जाती है। इसके पौधे में पतली, लम्बी  फलियां होती हैं। जिनको कच्ची अवस्था में तोड़ लिया जाता है और उनका उपयोग सब्जी बनाने में किया जाता है। यह अफ्रीकी मूल की फसल है, जिसे साल भर भारत के हर राज्य में उगाया जाता है। लोबिया की फलियों को भारत में बोड़ा चौला या चौरा की फलियों के नाम से जाना जाता है। खेत में इस फसल को उगाने के कारण खेत की मिट्टी में नमी मौजूद रहती है। इसके साथ ही यह विषम परिस्थियों में उगने वाली फसल है जो सूखे को सहन करने की क्षमता रखती है। इस फसल के कारण खेत में खरपतवार पैदा नहीं हो पाते। इसकी खेती ज्यादातर पंजाब के मैदानी इलाकों में की जाती है। आजकल बाजार में इसकी जबरदस्त डिमांड है, ऐसे में किसान भाई लोबिया की खेती करके अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं।

लोबिया की खेती के लिए जलवायु

समशीतोष्ण जलवायु लोबिया की खेती के लिए सबसे उत्तम मानी गई है। गर्मी के मौसम में इसके पौधे तेजी से विकास करते हैं, लेकिन जरूरत से ज्यादा गर्मी इन पौधों के लिए नुकसानदेह भी हो सकती है। लोबिया की खेती के लिए सर्दियों का मौसम अनुकूल नहीं है। इस मौसम में पौधे ज्यादा विकास नहीं कर पाते हैं। साथ ही ज्यादा बरसात भी लोबिया की खेती को बुरी तरह से प्रभावित करती है। शुरूआत में लोबिया के बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है। इसके बाद 35 डिग्री तक के तापमान पर लोबिया के पौधे आसानी से विकसित हो जाते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि इस फसल के विकास के लिए शुष्क जलवायु सबसे उत्तम होती है।

इस मौसम में की जाती है लोबिया की खेती

लोबिया की खेती मुख्यतः गर्मियों के मौसम में की जाती है। इसके अलावा इसकी खेती बरसात के मौसम में भी की जाती है। गर्मियों के मौसम के लिए इसकी बुवाई मार्च और अप्रैल माह में की जाती है। जबकि बरसात के मौसम के लिए इसकी बुवाई जून-जुलाई माह में की जाती है। लोबिया के पौधे लता और झाड़ीदार दोनों रूप में पाए जाते हैं।

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लोबिया की फसल एक लिए ये मिट्टी होती है सबसे उपयुक्त

वैसे तो लोबिया की फसल हर प्रकार की मिट्टी में बेहद आसानी से उगाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए मटियार या रेतीली दोमट मिट्टी को सबसे अच्छा माना गया है। देश के कई राज्यों में इस फसल को लाल, काली और लैटराइटी मिट्टी में भी उगाया जाता है। लोबिया की फसल के लिए मिट्टी का परीक्षण अवश्य करवाना चाहिए। कार्बनिक पदार्थो से युक्त उपजाऊ मिट्टी इस फसल के लिए उपयुक्त मानी जाती है। ध्यान रखें कि खेत में जल निकासी का उचित प्रबंध हो। लोबिया की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 6 से 8 बीच होना चाहिए। इसकी खेती अधिक लवणीय और क्षारीय मृदा में नहीं करनी चाहिए। ऐसी मृदा में इसकी खेती करने पर अपेक्षाकृत परिणाम प्राप्त नहीं होते।

लोबिया की उन्नत किस्में

वैसे तो बाजर में लोबिया की बहुत सारी किस्में उपलब्ध हैं। लेकिन हम आपको ऐसी किस्मों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनकी मदद से कम समय में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है। पंत लोबिया : लोबिया की इस किस्म के पौधे डेढ़ फीट ऊंचे होते हैं। इस किस्म की खेती अगेती फसल के रूप में की जाती है। यह फसल बुवाई के मात्र 60 दिन बाद तैयार हो जाती है। इसमें आधा फीट लंबी फलियां होती हैं, जिसके दाने सफेद होते हैं। लोबिया की इस किस्म की बुवाई करने पर एक हेक्टेयर में 15 से 20 क्विंटल लोबिया का उत्पादन किया जा सकता है। लोबिया 263 : यह ऐसी किस्म है जिसे खरीफ के साथ साथ रबी में भी उगाया जा सकता है। इसकी फसल तेजी से तैयार होती है। बुवाई के मात्र 45 दिनों के बाद यह तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इस किस्म में रोग का प्रकोप भी कम होता है। लोबिया 263 किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 125 किवंटल तक होता है। पूसा कोमल : इस किस्म की बुवाई बसंत, गर्मी और बरसात में की जाती है। इसकी फलियां 20 सेंटीमीटर लंबी होती हैं। साथ ही फलियों का रंग हल्का हरा होता है। इस किस्म की पैदावार 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकती है। पूसा बरसाती : लोबिया की इस किस्म की बुवाई बरसात के मौसम में की जाती है। इसकी फलियों की लंबाई 22 से 26 सेंटीमीटर तक होती है और फलियों का रंग हल्का होता है। यह फसल बुवाई के 40 दिनों बाद तैयार हो जाती है। इस किस्म की बुवाई करके किसान भाई 80 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। अर्का गरिमा : लोबिया की इस किस्म की बुवाई बरसात के मौसम में की जाती है। इसके पौधों की ऊंचाई 6 से 8 फीट तक होती है। यह फसल रोपाई के 40 से 45 दिन बाद तक तैयार हो जाती है। इस किस्म की खेती में एक हेक्टेयर में 80 क्विंटल तक का उत्पादन हो सकता है। पूसा ऋतुराज : लोबिया की यह किस्म ज्यादा तापमान सहन नहीं कर पाती। इसकी फलियां 20 से 25 सेंटीमीटर लंबी होती हैं। साथ ही इसका उत्पादन एक हेक्टेयर में 80 क्विंटल तक हो सकता है।

लोबिया की बुवाई

गर्मियों के मौसम में लोबिया की बुवाई समतल भूमि में की जा सकती है, जबकि बरसात के मौसम में 15 सेंटीमीटर ऊंचे मिट्टी के बेड पर बुवाई करनी चाहिए। लोबिया की बुवाई के लिए एक हेक्टेयर में लगभग 30 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। बुवाई के पहले बीजों को उपचारित कर लेना चाहिए। ऐसा करने पर 95 प्रतिशत बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है। साथ ही फसल में रोग लगने की संभावना न के बराबर होती है। लोबिया के बीजों को उपचारित करने के लिए थीरम दवा का प्रयोग कर सकते हैं। लोबिया की बुवाई पक्तियों में करनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

लोबिया के लिए खेत तैयार करने के पहले ही खेत में 10-15 टन तक गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। इसके अलावा खेत में 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डाल सकते हैं। साथ ही अगर किसान भाई जिंक सल्फेट का प्रयोग करते हैं तो उनकी लोबिया की फसल ज्यादा तेजी से बढ़ेगी।

रोग नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन

लोबिया की फसल में बीज गलन की बीमारी सबसे ज्यादा देखी जाती है। इस बीमारी की वजह से बीज सिकुड़ जाते हैं और बेरंग हो जाते हैं। कई बार देखा गया है कि बीजों का अंकुरण होने के पहले ही वो नष्ट हो जाते हैं। इससे निपटने के लिए बुवाई से पहले 'थीरम दवा' या 'बवास्टिन 50 डब्ल्यू पी' से बीजों को उपचारित करें। इसके अलावा जीवाणु झुलसा रोग भी लोबिया की खेती में देखा जाता है। यह रोग ज्यादातर नवजात पौधों में देखने को मिलता है। इसके रोकथाम के लिए 'ब्लाईटाक्स' का छिडक़ाव कर सकते हैं। एक अन्य रोग इस फसल में देखा जाता है, जिसे लोबिया मोजैक के नाम से जानते हैं। यह सफेद मक्खी द्वारा फैलती है। इस बीमारी से सबसे ज्यादा पौधे की पत्तियां प्रभावित होती हैं। इस बीमारी की रोकथाम के लिए 'मेटासिस्टॉक्स' या 'डाइमेथोएट' का छिडक़ाव करना चाहिए।

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जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट नियंत्रण के नुस्खों को अपना कर आप अपनी कृषि लागत को कम कर सकते है अगर लोबिया की फसल में कीटों की बात करें तो सबसे ज्यादा प्रकोप रोमिल सूंडी का देखा जाता है। यह कीट इस फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए फसल में 'मिथाइल पेराथियानद' का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा तेला और काला चेपा कीटों का भी लोबिया की फसल पर जबरदस्त हमला होता है। इसके प्रबंधन के लिए 'मैलाथियॉन 50 ई सी' का पानी में घोलकर छिड़काव किया जा सकता है। लोबिया की फसल में लीफ होपर, जैसिड और एफिड कीटों की भी भारी मात्रा में आक्रमण होता है। ये कीट पौधों का रस चूसते हैं, जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं। इनके नियंत्रण के लिए 'डाईमेथोएट 30 ईसी' या 'मिथाइल डिमेटान 30 ईसी'  का छिड़काव किया जा सकता है।

इतने दिनों में तैयार हो जाती है लोबिया की फसल

यह मैदानी इलाकों में उगाई जाने वाले गर्म एवं आर्द्र जलवायु वाली फसल है। इस फसल को तैयार होने में ज्यादा समय नहीं लगता। भारत के सभी राज्यों में यह फसल 40 से 45 दिन के अंतराल में तैयार हो जाती है।

लोबिया में इन पोषक तत्वों की होती है मौजूदगी

लोबिया पोषक तत्वों से भरपूर होती है। इसमें मुख्य तौर पर प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन, नियासीन, फाइबर, एंटीऑक्सीडेन्ट, विटामिन बी 2 और विटामिन सी जैसे पोषक तत्वों की भरमार होती है। इस खाने से शरीर को अतिरिक्त पोषण मिलता है। साथ ही वजन कम करने में, पाचन, दिल को स्वस्थ रखने में और शरीर को डिटॉक्स करने में सहायता मिलती है। भारत के किसान हरी खाद, पशुओं के चारे एवं सब्जी के लिए लोबिया की खेती करते है। इस खेती से किसानों की पशु चारे की समस्या भी हल हो जाती है। साथ ही बाजार में सब्जी बेंचकर किसान बेहद कम समय में अच्छी खासी आमदनी प्राप्त कर सकते हैं।
लोबिया की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

लोबिया की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

खरीफ फसलों की बुवाई का समय चल रहा है। अब ऐसी स्थिति में लोबिया की खेती छोटे किसानों के लिए एक वरदान साबित हो सकती है। यदि आप भी कम भूमि पर खेती-किसानी करते हैं, क्योंकि आज के इस लेख में हम आपको लोबिया की खेती के बारे में बताएंगे। भारत में छोटे और लघु किसानों की तादात काफी ज्यादा है, जिनके पास काफी कम भूमि है। ऐसे कृषकों के लिए लोबिया की खेती काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी में आने वाली एक फसल है। इसकी खेती खरीफ एवं जायद, दोनों सीजनों में की जाती है। इसकी खेती करने से कृषकों को दो तरह के लाभ हो सकते हैं। एक तो किसान इसे सब्जी के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं एवं दूसरा इसको पशुओं के चारे में उपयोग किया जा सकता है। लोबिया एक ऐसी फली होती है, जो कि तिलहन की श्रेणी के अंतर्गत आती है। इसे बोड़ा, चौला या चौरा के नाम से भी जाना जाता है। बतादें कि इसका पौधा सफेद रंग का काफी बड़ा होता है। लोबिया की फलियां पतली, लंबी होती हैं। इसे सब्जी बनाने के लिए या फिर पशुओं के चारे के लिए उपयोग किया जाता है।

लोबिया की खेती करने के लिए निम्नलिखित चीजों का ध्यान रखा जाना बहुत जरुरी है

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु एवं मृदा

लोबिया की खेती करने के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की जरूरत होती है। बतादें, कि इसकी खेती करने लिए 24-27 डिग्री के मध्य के तापमान की आवश्यकता होती है। अत्यधिक कम तापमान होने के स्थिति में इसकी फसल चौपट हो सकती है। इस वजह से लोबिया की फसल को ज्यादा ठंड से बचाना चाहिए।

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गर्मियों के मौसम में करें लोबिया की खेती, जल्द हो जाएंगे मालामाल लोबिया की खेती करने के लिए यदि मृदा की बात की जाए, तो इसे हर तरह की मिट्टी में उत्पादित किया जा सकता है। मगर एक बात का विशेष ख्याल रखें, कि इसके लिए छारीय मृदा बिल्कुल ठीक नहीं होती।

लोबिया की उन्नत प्रजतियाँ

दरअसल, लोबिया की विभिन्न उन्नत किस्में हैं, जो कि काफी अच्छी पैदावार देती हैं। जैसे कि - सी- 152, पूसा फाल्गुनी, अम्बा (वी- 16), स्वर्णा (वी- 38), जी सी- 3, पूसा सम्पदा (वी- 585) और श्रेष्ठा (वी- 37) आदि प्रमुख हैं।

लोबिया की बुवाई कब की जाती है

लोबिया की बुवाई के बारे में बात की जाए, तो बरसात के मौसम में जून माह के अंत व जुलाई की शुरुआत में इसकी बुवाई की जाती है। वहीं, इसे फरवरी से लेकर मार्च तक बोया जाता है।

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लोबिया की बुवाई हेतु बीज की मात्रा

लोबिया की बुवाई करने के दौरान बीज की मात्रा ज्यादा ना हो इस बात का विशेष ध्यान रखने की जरूरत है। इसकी बुवाई हेतु सामान्यत: 12-20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है। इसकी बेल वाली किस्म के लिए बीज की मात्रा थोड़ी कम लगती है और मौसम के अनुरूप बीज की मात्रा का निर्धारण करना ज्यादा उचित होता है।

इस तरह करें लोबिया की बुवाई

लोबिया की बुवाई करते समय आपको यह ध्यान देने की जरूरत है, कि इसके बीज के मध्य का फासला सही होना चाहिए। जिससे कि जब इसका पौधा उगे, तो ठीक ढ़ंग से विकास कर सके। दरअसल, लोबिया की बुवाई के दौरान उसकी किस्म के मुताबिक दूरी तय की जाती है। जैसे कि - झाड़ीदार किस्मों के बीज के लिए एक लाइन से दूसरी लाइन का फासला 45-60 सेमी होना चाहिए। बीज से बीज का फासला 10 सेमी होना चाहिए। साथ ही, इसकी बेलदार प्रजातियों के लिए लाइन से लाइन का फासला 80-90 सेमी रखना सही होता है।

लोबिया की खेती में खाद कितनी मात्रा में देना चाहिए

जैसा कि हम जानते हैं, कि किसी भी फसल की खेती करने के लिए खाद की काफी आवश्यक होती है। इसी प्रकार लोबिया की खेती करने के लिए खाद आवश्यक है। लोबिया की फसल में इस प्रकार से खाद डालें। एक महीने पहले खेत में 20-25 टन गोबर अथवा कम्पोस्ट डालें, 20 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस 60 कि.ग्रा. और पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुरूप खेत में जुलाई के अंत में ही डाल दें। साथ ही, नाइट्रोजन की 20 कि.ग्रा. की मात्रा फसल में फूल आने के समय देनी चाहिए।

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लोबिया की सिंचाई

लोबिया की फसल को खरीफ के सीजन में पानी की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस वजह से खरीफ के सीजन में उतना ही पानी देना चाहिए, जिससे कि मृदा में नमी बनी रहे। साथ ही, अगर हम गर्मी की फसल की बात करें, तो सामान्यतः किसी भी फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। लोबिया की फसल में 5 से 6 पानी की आवश्यकता होती है।

लोबिया की कटाई कब की जाती है

लोबिया की हरी फलियों का अगर आप इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो इसकी फलियों को 45 से 90 दिन बाद तोड़ लेना चाहिए। यदि आपने लोबिया की चारे वाली फलियों की फसल की है, तो इसकी फलियों को सामान्य रूप से 40 से 45 दिन में तोड़ लेना चाहिए। साथ ही, यदि आप इसके दाने को अर्जित करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको 90 से 125 दिन के पश्चात ही फलियों को संपूर्ण तौर पर पकने की स्थिति में ही तोड़ना चाहिए।